सफ़र जिन्दगी का !!!

गाँव में अभी भी चार-पांच साल को बचपन ही समझा जाता है । लेकिन शहरों में उसी चार साल के बच्चे को सयाना समझा जाने लगता है ।अक्सर शहर की गलियों से गुजरते वक़्त एक नाजुक कंधे पर बस्ता का बोझ लिए वे  दिख ही जाते है । लेकिन बचपन  तो बचपन होता है । हम बचपन में बेवजह हँसते है ,बिना समझे रोते है । और बिन जवाबों वाले सवाल पूछते है।कोई अपना कोई पराया नही होता । हमें पता ही नही होता हम क्या कर रहे है ,क्यों कर रहे है । बस जीते ,जिन्दगी का मजा उठाते आगे बढ़ते जाते है । ।लिकिन  किशोरावस्था तक आते आते हम बदलने लगते है । और यहाँ से जैसे जैसे हमारी उम्र बढती जाती है हम जिन्दगी के मायने समझते लगते  है ।हम भावनाओ में घिर जाते है । अब हम बेवजह  नही हँसते । हमारी हँसी बनावटी हो जाती है । कोई अपना तो कोई पराया बन जाता है । और यहाँ से हमारी जिन्दगी की गाड़ी पूरे रफ़्तार से दौड़ने लगती है ।इस  रफ़्तार में कौन आगे निकल गया, कौन पीछे ,हम जानने की कोशिश ही नही करते ।हम परवाह करते है तो उसकी जो जिन्दगी की रफ़्तार में हमारे साथ होता है । हमारा हमसफ़र होता है । वही  शख्स हमारा बन जाता है । हम उसी के लिए जीने ,मरने लगते है ।लेकिन कब तक ?
कभी न कभी तो ये रफ़्तार धीमी हो ही जाती है । फिर हम पीछे मुड़ते है । हम भूल जाते है की हमें सिर्फ आगे बढ़ना सिखाया गया था । हम बार बार अपने बीते कल को देखने की कोशिश करते है । इसी कोशिश में यादों की किताब के सुनहरे पन्नों को पलटते है । और अपनी ही कुछ बातों पर हम हँस पड़ते है । लेकिन ये हँसी हमारी अपनी होती है । वही बचपन वाली सच्ची हँसी। हमारा बचपन फिर लौट आता है ।और फिर उसी हमसफ़र की गोद में सर रख कर हम ख़ुशी ख़ुशी जिन्दगी के सफ़र को अलविदा कह देते है ।