अलसाई रात में पसरी चांदनी !!!


बेइन्तहां गर्मी से परेशान छत पर बैठी 
जब निहारो उस आसमान में तारों को 
और वो तारे तुम्हे अनजाने से लगें 
जैसे तुम उन्हें पहली बार देख रही हो !!
दूसरे पहर गए जब शहर की बत्तियाँ
टिमटिमाना बंद कर दें और तुम्हे 
अलसाई रात में पसरी चांदनी उदास लगे 
जैसे वो पहली बार धरती पर उतरी हों 
तुम टटोलोगी तब अपने बगल में बिछी
उस पतली सी चादर को 
और नही पाओगी वहां मेरे निशाँ 
फिर याद आएँगी तुम्हे वो रातें 
जब मैं तुम्हे तारों के नजदीक ले जाता था 
तुम उनसे दोस्ती करती थी, बातें करती थी !!
तुम्हे याद आएगा वो लुका छिपी का खेल
जो हम चांदनी के साथ खेला करते थे 
और तुम जानबूझ मुझसे हार जाया करती थी !!
तुम फिर टटोलोगी उस चादर को इस आस में 
कि शायद अब भी मैं तुम्हे वहीँ मिल जाऊं 
लेकिन वहां गर्म हवाओं के सिवा कुछ नही होगा 
मैं याद आऊंगा और तुम्हारी भूरी आँखों से 
कुछ गर्म आंसू तकिये पर गिर कर बिखर जायेंगे 
ठीक वैसे ही जैसे तुमने कभी मुझे गिरा दिया था 
अपनी नजरों से, अपने लम्हों से,अपने आप से
टूट कर बिखर जाने के लिए 
कभी वापस लौटकर ना आने के लिए !!!